नागरी प्रचारिणी सभा: हिंदी साहित्य और भाषा के विकास में योगदान
लेखक – दिवाकर (शोध छात्र) हिंदी विभाग - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ईमेल – dwkr2569@gmail.com मोबाइल न॰ 8009374891
12/16/20241 min read
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शोध सार -
नागरी प्रचारिणी सभा की नींव क्वींस कॉलेज के कुछ छात्रों ने मिलकर रखी थी। जिनमें श्यामसुंदर दास, राम नारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह प्रमुख थे। इन्होंने ही 3 मार्च 1893ईस्वी को इस सभा की रूपरेखा तैयार की और सभा की पहली बैठक में इसकी स्थापना का दिन निश्चित किया गया 16 जुलाई 1893 ईस्वी को। प्रारम्भ में यह सभा क्वींस कॉलेज के छात्रावास में आयोजित होती थी। बाद में देखते ही देखते सभा में सदस्यों की संख्या और लोगों की भीड़ बढ़ने लगी जिससे सभा के आयोजन से छात्रावास के प्रबंधक को दिक्कत होने लगी। सभा की पहली बैठक में श्यामसुंदर दास को सभा के मंत्री के रूप में तथा गोपाल प्रसाद को सभा की स्थापना कर्ता के रूप में माना गया। सभा को हिंदी के हितैषी विद्वानों का भी मार्गदर्शन प्राप्त होने लगा। इनमें सुधाकर द्विवेदी,राय बहादुर, लक्ष्मी शंकर मिश्र इत्यादि प्रमुख थे। शुरू में सभा को बैठकें आयोजित करने के लिए जगह की काफी दिक्कतें आई । बाद में स्थाई रूप से 21 दिसंबर 1902ईस्वी को विशेश्वरगंज स्थिति वर्तमान भवन में नागरिक प्रचारिणी सभा अवस्थित की गई। सभा का मुख्य कार्य संस्कृत के ग्रंथों की खोज करना हस्तलिखित पांडुलिपियों का संग्रह करना तथा अन्य भाषा के पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद करना, प्राचीन रचनाओं की खोज करना था। इसका उद्देश्य तत्कालीन समाज को सही तरीके से समझना था और लोगों में अपने इतिहास के प्रति नई चेतना और जागरूकता पैदा करना था । कई बार इस तरह के कार्य के लिए सभा को आर्थिक तंगियों का सामना भी करना पड़ा । इसलिए सभा ने कभी बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की मदद से तो कभी प्रांतीय सरकारों की मदद से अपने खोज कार्य को सुचारू रूप से जारी रखा। सभा ने दूसरी तरफ लिपि के विकास के लिए भी कई कार्य किए। इनमें हिंदी नामक मासिक पत्रिका निकालना और सांकेतिक विद्यालय खोलना महत्वपूर्ण है| गरीब बच्चों को तथा गैर सवर्णों को शिक्षित करने के उद्देश्य से नागरिक पाठशाला खोलना भी महत्वपूर्ण है। हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए गांव-गांव में घूम कर पर्चा बांटना, लोगों को हिंदी भाषा के प्रति जागरूक करना भी इनका आवश्यक कार्य था। हिंदी को राजकीय कार्यालय की भाषा बनाने और अदालतों में हिंदी के प्रयोग के लिये यह सभा गांव गांव में जाकर प्रचार प्रसार करने और उसके समर्थन में आंदोलन खड़ा करने के लिए हमेशा तत्पर रही है।
मुख्य शब्द- नागरीलिपि, वाङ्मय, हस्तलिखित, पांडुलिपि, अभिनंदन ग्रंथ, व्याख्यानमाला आदि।
मूल लेख
हिंदी के विकास एवं प्रचार- प्रसार में संलग्न 'नागरी प्रचारिणी सभा' एक ऐसा हिंदी संस्थान है जिसका मूल उद्देश्य हिंदी हित साधन रहा है। काशी में स्थित नागरी प्रचारिणी सभा अपने उद्गम काल से लेकर वर्तमान तक हिंदी वांग्मय और नागरी लिपि के श्रीवृद्धि में संलग्न है। शुरुआत में यह सभा एक वाद-विवाद समिति के रूप में शुरू हुईl इसकी स्थापना क्वींस कॉलेज स्कूल के में पढ़ने वाले कुछ छात्रों ने 10 मार्च 1893 ईस्वी में की । जिसका नाम नागरी प्रचारिणी सभा रखा गया । इसकी रूपरेखा भी बाबू श्यामसुंदर दास, राम नारायण मिश्र, शिव कुमार सिंह ने मिलकर 3 मार्च 1893 ईस्वी को तैयार की। उस समय गोपाल प्रसाद खत्री, रामसूरत मिश्रा ,उमराव सिंह, शिवकुमार सिंह ,रामनारायण मिश्र सभा के प्रमुख कार्यकर्ता थे। साथ ही कन्हैया सहाय, राधाकृष्ण दास, जय कृष्ण दास , रघुनाथ प्रसाद सिंह, बाबा गंडा सिंह,भगत राम और शंकर नाथ सभा के सदस्यों में से एक थे। नागरी प्रचारिणी सभा की एक महत्वपूर्ण बैठक 16 जुलाई 1893 ईस्वी को हुई । इसी को नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना तिथि माना गया। बैठक में सभा के स्थापन कर्ता के रूप में गोपाल प्रसाद एवं सभा के मंत्री के रूप में श्याम सुंदर दास को स्वीकार किया गया। “सभा नागरी प्रचारिणी सभा ही रहे।इसके स्थापना कर्ता श्री गोपाल प्रसाद माने जाएं, उद्देश्य और नियम परिवर्तित एवं परिवर्धित किए जाएं। सभा का जन्म 32 अषाढ़ संवत् 1950 विक्रमी (16 जुलाई 1893 ) माना जाए। श्री श्याम सुंदर दास सभा के मंत्री बनाए जाएं।” 1
इस तरह नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना 16 जुलाई 1893 ईस्वी को मानी गई। विद्यालयी बालकों के प्रयास से स्थापित इस सभा में लोग देखते ही देखते जुड़ने लगे ।बैठक में लोगों की उपस्थिति से भीड़ ज्यादा होने लगी। इससे कॉलेज प्रबंधक को दिक्कत होने लगी। “कुछ समय तक 'सप्तसागर मोहल्ले’ की घुड़साल में इसकी बैठकें होती रही किंतु आगे चलकर बड़ी पियरी के बागबरियार सिंह स्थित मथुरा प्रसाद के बगीचे से नागरी प्रचारिणी सभा का संचालन होता रहा।”2 कालांतर में विशेश्वरगंज स्थिति वर्तमान भवन में नागरिक प्रचारिणी सभा 21 दिसंबर 1902ईस्वी में अवस्थित की गई। कुछ ही वर्षों बाद सभा ने का एक स्थाई कोष की स्थापना की गई और 1900 ईस्वी में सभा भवन निर्मित किया गया। इसका शिलान्यास 21 दिसंबर 1902 ईस्वी को काशी नरेश महाराज प्रभु नारायण सिंह बहादुर के द्वारा किया गया।
उत्साही बालकों के प्रयास से सुधाकर द्विवेदी, राय बहादुर, लक्ष्मीशंकर मिश्र और डॉ छन्नू लाल जैसे प्रतिष्ठित हिंदी हितैषी विद्वान पथ प्रदर्शक के रूप में जुड़ने लगे सभा के प्रथम वर्ष में ही मदनमोहन मालवीय, कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह, राजा शशि शेखर राय,कांकरोली नरेश महाराज बालकृष्ण लाल,श्री अंबिकादत्त व्यास,श्री बद्रीनाथ चौधरी,श्री राधाचरण गोस्वामी,श्रीधर पाठक,श्री ज्वालादत्त शर्मा, श्री नंदकिशोर देव अमृतसर, कुंवर जोध सिंह मेहता उदयपुर, श्री समर्थ दास अजमेर और डॉक्टर ग्रियर्सन जैसे विद्वान सभा के सदस्यता और संरक्षकत्व को स्वीकार किया। आगामी दो-तीन वर्षों में ही यह सभा बिखराव के कगार पर पहुंचने लगी तब राम नारायण मिश्र,श्यामसुंदर दास और शिव कुमार सिंह सभा के प्रचार-प्रसार मे सक्रिय रूप से अपनी सेवाएं देते रहे और इन्हीं वजहों से इन्हें ही सभा का संस्थापकत्व का श्रेय दिया जाता है ।
सभा अपने स्थापना काल से ही हस्तलिखित पुस्तकों की खोज करने, संरक्षण करने और संग्रह करने, हिंदी के बड़े कोश का निर्माण कराना, प्रमुख हिंदी लेखकों और पत्र संपादकों के जीवन चरित्र तैयार करने, हिंदी हस्तलिपि की परीक्षा आरंभ कराने, हिंदी भाषा के इतिहास का निर्माण करने, हिंदी उपन्यासों का इतिहास लिखाना, भारतवर्ष का इतिहास तैयार करने, यात्राओं के वर्णन तैयार कराने, हिंदी भाषा के सामायिक पत्रों का इतिहास लिखाने, विज्ञान संबंधी भिन्न-भिन्न विषयों के ग्रंथ लिखाने, हिंदी के प्राचीन पद्यग्रंथों को प्रकाशित कराने तथा उनका विस्तृत विवरण प्रस्तुत करने में लगी रही। इसके फलस्वरुप बंगाल एशियाटिक सोसायटी समिति की आर्थिक मदद और उसके अनुरोध पर संस्कृत के हस्तलिखित ग्रंथों की खोज के साथ-साथ हिंदी के ग्रंथों की खोज का कार्य भी किया गया। परिणाम स्वरुप 1985 ईस्वी तक 600 प्राचीन ग्रंथ प्रकाश में आई। बाद में “सभा ने प्रांतीय सरकार से भी आर्थिक मदद ली। सरकार की आर्थिक मदद से सभा ने 1900 ईस्वी से पुस्तकों का खोज हाथ में ले लिया और 1911ईस्वी तक खोज की आठ रिपोर्टों में सैकड़ो अज्ञात कवियों के अज्ञात ग्रंथों का पता लगाया।”3 इनकी प्रतियां देश-विदेश के अनेक विद्वानों के पास भेजी गई, इन्होंने व्यक्तिगत रूप से पत्र के माध्यम से खोज रक्षक श्याम सुंदर दास जी की भूरि भूरि प्रशंसा की। 1912ईस्वी में सरकारी सहायता बंद हो जाने के कारण खोज कार्य बंद रहा । इसी दौरान “1913ईस्वी में सभा की सभी सामग्रियों का उपयोग कर मिश्र बंधुओ ने अपना भारी कविवृत्त संग्रह 'मिश्रबंधु विनोद' तीन भागों में प्रकाशित किया।”4और 1914 ईस्वी से पुनः सरकार की वित्तीय सहायता मिलनी प्रारंभ हो गई।1915 ईस्वी सरकार की ओर से वार्षिक सहायता राशि बढ़ाकर 1000रूपये कर दिया गया। इस प्रकार प्रांतीय सरकारों और रियासतों की मदद से 1930ईस्वी तक खोज कार्य की यह व्यवस्था चलती रही।
1931ईस्वी से समय एवं श्रम की बचत हेतु अन्वेषको के क्षेत्र में रहने वाले विद्वानों से भी देखरेख और परामर्श का कार्य लिया जाने लगा। जैसे “1931ईस्वी में प्रयाग का जो कार्य हुआ उनकी देखरेख में देवी दत्त शुक्ला जो कि सरस्वती के संपादक रहे हैं और बलिया के कार्य के स्थानीय देख-रेख में परशुराम चतुर्वेदी जी ने बड़ी सहायता की। इसी वर्ष विद्याभूषण मिश्र निरीक्षक तथा रामबहोरी शुक्ल सहायक निरीक्षक रहे।”5 नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा हिंदी पुस्तकों की खोज आज भी जारी है।
नागरी प्रचारिणी सभा की हिंदी पुस्तकों की खोज योजना के परिणाम स्वरुप साहित्य का व्यवस्थित इतिहास ' हिंदी शब्द सागर' की भूमिका के रूप में ' हिंदी भाषा और साहित्य का विकास' के नाम से तैयार हो सका। दस खंडों में प्रकाशित ' हिंदी शब्द सागर' हिंदी की सर्वाधिक प्रामाणिक और विस्तृत कोश है। साथ-साथ सभा ने 'विश्व कोश' की रचना की। जो केंद्र सरकार की वित्तीय सहायता से 12 भागों में 1960ईस्वी से 1970ईस्वी के बीच प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त ' हिंदी साहित्य का वृहद इतिहास' 16खंडों,'राजकीय कोश','कचहरी हिंदी कोश' इत्यादि अनेक ग्रंथों और कोशो का संपादन किया । सभा ने 1998ईस्वी में 8 वर्षों के कठोर परिश्रम से पारिभाषिक शब्दावली प्रस्तुत की। जिससे देश में प्रचलित सभी भाषाओं में वैज्ञानिक शब्दावली और सहित्य निर्माण के श्रृंखला का सूत्रपात हुआ। जिसमें यह ग्रंथ मील का पत्थर साबित हुई। “आकर ग्रंथमाला के तहत प्राचीन कवियों की कृतियों का संपादन और प्रकाशन शास्त्रीय और वैज्ञानिक पद्धति से किया गया। पृथ्वीराज रासो, कबीर ग्रंथावली, पद्मावत, सूरसागर, तुलसी ग्रंथावली जैसे ग्रंथ इसके उदाहरण है।”6
1896ईस्वी में सभा के संचालन में ' नागरी प्रचारिणी पत्रिका' का प्रकाशन किया गया जो आगे चलकर हिंदी की प्रसिद्ध शोध पत्रिका सिद्ध हुईl “ नागरी प्रचारिणी पत्रिका में- पुरातत्व, मुद्राशास्त्र,लिपिशास्त्र, भाषा विज्ञान, कला, वास्तु शास्त्र के अलावा भारत एवं अन्य देशीय इतिहास पर विधिक शोध पूर्ण लेख सतत् प्रकाशित हुए।”7 साथ ही ' हिंदी-रिव्यू' नामक अंग्रेजी मासिक पत्रिका तथा ' विधि पत्रिका' का प्रकाशन भी कई वर्षों तक चलता रहा । नागरिक प्रचारिणी सभा 1953ईस्वी से अपना मुद्रणालय भी चला रही थी जिसका उद्देश्य प्रकाशन कार्य को सुचारू रूप से जारी रखना था। ठाकुर गदाधर सिंह ने अपना पुस्तकालय इस सभा को प्रदान किया। इसके परिणाम स्वरूप 1896 ईस्वी में सभा ने हिंदी के सबसे बड़ा पुस्तकालय ' आर्य भाषा पुस्तकालय' की स्थापना की। इसमे 19वीं शताब्दी के अंतिम और 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में हिंदी के महत्वपूर्ण ग्रंथ, पत्र, पत्रिकाओं के संग्रह में विशेष योगदान दिया। आज लगभग 15000 से ऊपर हस्तलिखित ग्रंथों का यहां संग्रह किया गय है | “महावीर प्रसाद द्विवेदी, जगन्नाथ दास रत्नाकर, माया शंकर यज्ञिक, हीरानंद शास्त्री, राम नारायण मिश्र जैसे लेखकों ने अपने-अपने संग्रह इस पुस्तकालय को दिए। जिससे यह समृद्ध हुआ।”8 1920 ईस्वी में सभा ने रविंद्रनाथ ठाकुर की अध्यक्षता में 'भारतीय कला परिषद' की स्थापना की। इसका उद्देश्य भारतीय कलाओं का संरक्षण था। जगह की कमी के कारण 1950ईस्वी में इसे काशी हिंदू विश्वविद्यालय को दे दिया गया। वर्तमान में यह ' भारत कला भवन' नाम से प्रसिद्ध है जो आज भारतीय साहित्य संस्कृति से संबंध रखने वाली अमूल्य वस्तुओं का दुर्लभ संग्रहालय बनकर सुशोभित है।
खोज कार्य से अनेक ऐसे दुर्लभ ग्रंथ प्राप्त हुए जो ऐतिहासिक शोध के आधार ग्रंथ बने। सूफी काव्य और संपूर्ण भक्ति काव्य के समय के कवियों के खोजे गए ग्रंथों से तत्कालीन परिस्थितियों को जानने -समझने का अवसर मिला। बाबू राधा कृष्ण दास ने ' बप्पा रावल' के उपक्रम में ही लिखा है “हमारे यहां क्रम पूर्वक इतिहास नहीं है। इससे हमारे देश की कैसी कुछ हानि होती है। जो कोई नए इतिहास मिलते हैं भी सो मुसलमान के समय के। जिन्होंने मुसलमान की स्तुति और हिंदुओं को गाली प्रदान करने की कसम खाई है। संप्रति जितने भी इतिहास प्रचलित हैं उनके प्रायः यही दशा है। इन्हें पढ़कर सुकुमार माति बालकों के हृदय में ऐसा संस्कार जम जाता है कि वह अपने को तुच्छ और सदा गुलाम समझने लगते हैं।”9 इसी संदर्भ में सभा ने बाबू राधा कृष्ण दास लिखित ' हिंदी भाषा के सामयिक पलों का इतिहास' प्रकाशित किया। 1900 ईस्वी से 1919 ई. तक सभा ने ' नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला’ का प्रकाशन किया। इसमें लगभग 36 पुस्तकें प्रकाशित हुई। जिनमें - ' छात्र प्रकाश' , ' हम्मीर हठ', हम्मीररासो, परमाल रासो, पृथ्वीराज रासो, जगनामा आदि हैं। सभा ने 1900ईस्वी से 1927ईस्वी तक नागरी प्रचारिणी लेखमाला का भी प्रकाशन शुरू किया गया, जिनमें कई लेख इतिहास विषय पर भी हैं ।1913ईस्वी से 1940 ईस्वी तक मनोरंजन पुस्तक माला की सौ पुस्तकों की पुस्तकावली भी सभा से प्रकाशित होनी प्रारंभ हुई।
“1918ईस्वी से देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला का प्रकाशन आरंभ हुआ और 1940ईस्वी तक इसमें 14 पुस्तके प्रकाशित हो चुकी थी- फाह्यान का यात्रा विवरण, सुंग युन,सुलेमान सौदागर, अशोक की धर्म लिपियां, हुमायूंनामा,प्राचीन मुद्रा, बुंदेलखंड का संक्षिप्त इतिहास, मौर्यकालीन भारत, मआसिफल उमरा, मोहनजोदड़ो तथा सिंध सभ्यता इत्यादि ।”10 इसी क्रम में हिंदी का प्रचार प्रसार करने तथा उसके भंडार को सर्वोत्तम ग्रंथों से भरने के उद्देश्य से सूर्य कुमारी पुस्तक माला स्थापित की गई। अब तक इस पुस्तक माला में काम से कम 21 पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। इसके अतिरिक्त बालाबक्ष राजपूत चारण पुस्तक माला के तहत डिंगल और पिंगल भाषा में सभा ने नौ पुस्तके प्रकाशित की। साथ ही महिला पुस्तकमाला, नवभारत ग्रंथमाला,श्री महेंदुलाल गर्ग विज्ञान ग्रंथावली, देवपुरस्कर ग्रंथावली, श्री रामविलास पोद्दार स्मारक ग्रंथमाला इत्यादि का भी प्रकाशन शुरु हुआ। सभा की ओर से प्रकाशित द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ और श्री सम्पूर्णानंद अभिनंदन ग्रंथ में साहित्य, कला, भारतीय शिल्प और संस्कृति का जैसे समन्वय और संकलन है वैसा इसके पूर्व प्रकाशित अन्यत्र ग्रंथों में देखने को नहीं मिलता। देश की अशिक्षा दूर करने और विज्ञान को सर्वसुलभ और सर्वसाधारण बनाने, स्वास्थ्य आदि विषयों पर लोगों को जागरूक करने के लिए सुबोध व्याख्यानमाला चलाने की शुरुआत नागरी प्रचारिणी सभा ने की। सभा ने विज्ञान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से कई लेखकों को पुरस्कृत भी किया जैसे- हमारे शरीर की रचना (डॉ त्रिलोकीनाथ ), मानव शरीर रहस्य (डॉ मुकुन्दस्वरूप वर्मा), सौर परिवार (डॉ गोरख प्रसाद ),क्षय रोग (डॉ शंकरलाल गुप्त) को छ्न्नुलाल पुरस्कार दिया, इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र मे विशेष योगदान के लिए सभा के द्वारा बिड़ला और ग्रीव्ज़ पुरस्कार भी दिये जाते थे | सभा ने 1929 ईस्वी मे डॉ निहालकरण सेठी द्वारा संकलित भौतिक विज्ञान और प्रोफ़ेसर फूलदेव द्वारा संकलित रसायनशास्त्र को प्रकाशित किया और 1930 ईस्वी में गणितविज्ञान की पारिभाषिक शब्दावली और 1931 ईस्वी में ज्योतिष शास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली भी प्रकाशित की| इस प्रकार सभा ने प्राचीन से लेकर आधुनिक साहित्य, भारतीय साहित्य से लेकर यूरोपीय साहित्य, अध्यात्म से लेकर विज्ञान, भूगर्भशास्त्र से लेकर खगोलशास्त्र, कामशास्त्र से लेकर समाजशास्त्र तक सभी तरह के ज्ञान-विज्ञान को प्रचारित और प्रसारित करने में महत्वपूर्ण भूनिका निभाई |
सभा शुरू से ही व्यापक पैमाने पर अनुवाद का काम भी कर रही थी “रमेश चंद्र दत्त की 'प्राचीन भारत के इतिहास' और 'मेगास्थनीज की भारत यात्रा' का अनुवाद 1904 ईस्वी में सभा के संस्थापकों में से एक बाबू श्यामसुंदर दास ने प्रकाशित करवाया।”११
सभा ने जब त्वरित लेखन प्रणाली का अभाव महसूस किया तब “संवत् 1955 में साहित्य आचार्य श्री अंबिका दत्त व्यास ने त्वरित लेखन के चिन्ह तैयार किए।”१२ किंतु व्यास की रुग्ण अवस्था के कारण उसका परीक्षण न हो सका । बाद में प्रांतीय सरकारों की सहायता संवत् 1994 में पुरुषोत्तम दास टंडन के हाथों सभा ने ' संकेत लिपि शिक्षा' की कक्षा का उद्घाटन कराया । जिसका नाम ' सांकेतिक विद्यालय' रखा गया। हिंदी भाषा, साहित्य और नागरी लिपि के विकास के लिए सभा ने कई प्रोत्साहन पुरस्कार और पदक भी प्रदान किए। जैसे-
राजा बलदेव दास बिड़ला पुरस्कार- यह पुरस्कार अध्यात्म, सदाचार,मनोविज्ञान और दर्शन के सर्वोत्तम ग्रंथ पर प्रति चौथे वर्ष दिया जाता था ।
बटुक प्रसाद पुरस्कार- प्रति चौथे वर्ष मौलिक नाटक और उपन्यास के लिए दिया जाता था।
रत्नाकर पुरस्कार - ब्रजभाषा और ब्रजभाषा जैसे सर्वोत्तम अन्य भाषाओं के ग्रंथ के लिए प्रति चौथे वर्ष दिया जाता था| इस तरीके से प्रति चौथे वर्ष दिए जाने वाले और भी कई ऊपर पुरस्कार थे जैसे छन्नू लाल पुरस्कार, माधवी देवी महिला पुरस्कार,डॉक्टर श्यामसुंदर दास पुरस्कार ,भैरव प्रसाद स्मारक पुरस्कार, मांडलिक पुरस्कार इत्यादि।
डॉ हीरालाल स्वर्ण पदक - यह स्वर्ण पदक पुरातत्व,मुद्रा शास्त्र, इंडोलॉजी, भाषा विज्ञान, पूरालिपिशास्त्र संबंधी हिंदी लिखित सर्वोत्तम मौलिक पुस्तक या गवेषणापूर्ण निबंध के लिए प्रति 2 वर्ष में दिया जाता था। अन्य पदक जैसे द्विवेदी स्वर्ण पदक, सुधाकर पदक,ग्रीव्ज पदक, राधा कृष्ण दास पदक, बलदेव दास पदक, गुलेरी पदक, बसुमति पदक, भागना देवी पदक, बाजोरिया पदक इत्यादि भी प्रदान किए जाते थे उल्लेखनीय योगदान के लिए।
सभा ने हिंदी को अदालत में स्थान दिलाने के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन दिनों अदालतों की भाषा फारसी थी। फ़ारसी की क्लिष्टता को देखकर 1837 ईस्वी में अंग्रेज़ी सरकार ने देशी भाषा जारी करने की आज्ञा दी । परिणाम स्वरूप बंगाल में बंगला, उड़ीसा में ओड़िया, गुजरात में गुजराती, महाराष्ट्र में मराठी में काम होने लगा। उर्दू के हाकिमों ने अंग्रेज सरकार को भ्रमित करने में सफल रहे कि उर्दू ही हिंदुस्तानी है जो सरकारी आदेशों के अनुसार संयुक्त प्रांत, बिहार तथा मध्यप्रदेश की भाषा थी। 1881 ईस्वी में बिहार और मध्य प्रदेश के सरकारों ने यह बात समझी और वहां हिंदी प्रचलित की किंतु संयुक्त प्रांत के सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। तब नागरी प्रचारिणी सभा ने 1882ईस्वी में बोर्ड ऑफ रेवेन्यू का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। 1994 ईस्वी में तत्कालीन गवर्नर को अभिनंदन पत्र भेजा गया । गवर्नर की ओर से जो जवाब आया उसका आशय था कि - “गवर्नर महोदय ने अभिनंदन पत्र रूचिपूर्वक पढ़ा । इसमें जिस मुख्य प्रश्न की चर्चा की गई है। अर्थात् अदालती भाषा उर्दू की जगह हिंदी कर दी जाय,उस पर गवर्नर महोदय अपनी कोई सम्मति अभी प्रकट नहीं कर सकते ।फिर भी वे यह स्वीकार करते हैं कि सभा की प्रार्थना ध्यानपूर्वक विचार करने योग्य है और वे भविष्य में समुचित अवसर पर उस पर अवश्य चर्चा करेंगे।”१३सभा ने नागरीलिपि और रोमन अक्षरों की एक पुस्तिका अंग्रेजी में प्रकाशित की तथा उसकी कई प्रतियां सरकारी पदाधिकारियों और जनता में बांटी। जिसमें यह सिद्ध किया गया है कि नागरी लिपि सर्वोत्तम है। बाद में सभा की प्रार्थना स्वीकार कर ली गई और बोर्ड ऑफ रेवेन्यू के ' समन ' आदि हिंदी में भी जारी होने लगे। 1896ईस्वी को सभा ने गवर्नर को मेमोरियल भेजने का निश्चय किया, जिसमें राजकीय कार्यालयों में देवनागरीलिपि को स्थान देने की बात कही गई थी। सभा ने अदालतों में हिंदी को स्थान दिलाने के लिए एक मुहिम छेड़ रखी थी। इसी दौरान पंडित मदनमोहन मालवीय ने दो वर्षों के कठिन परिश्रम से ‘कोर्ट कैरेक्टर एंड प्राइमरी एजुकेशन’ नामक वृहद निबंध तैयार किया, जिसकी एक प्रति के साथ सभा ने अपना मेमोरियल गवर्नर को भेजा| श्यामसुंदर दास ने इस मेमोरियल का सार-संक्षेप हिन्दी में ‘पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा अवध मे अदालती अक्षर और प्राइमरी शिक्षा’ नाम से सभा की ओर से प्रकाशित करवाया और इसकी कई प्रतियाँ लोगों तथा सरकारी अधिकारियों मे प्रसारित करवाया| इसने नागरी के पक्ष मे माहौल निर्मित करने मे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की| इस तरह नागरी के पक्ष मे माहौल निर्मित करने में पंडित मदनमोहन मालवीय, केदारनाथ पाठक, मौलवी सैयद अली बिलग्रामी और एंटनी मैकडानेल महोदय ने भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई। समाचार पत्रों तथा लोगों के हजारों हस्ताक्षरों के माध्यम से यह आंदोलन निरन्तर जारी रहा। लगभग तीन वर्षों के संघर्ष के बाद अदालतों की लिपि देवनागरी और फारसी दोनों में कर दी गई। सभा हिंदीभाषा के प्रचार प्रसार के लिए हिंदी जानने वालों को हिंदी के शिक्षक के रूप में नियुक्त कर आर्थिक मदद भी देती रही।
निष्कर्ष
नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी भाषा और साहित्य के विकास के लिए एक तरफ हस्तलिपि ग्रंथों का संग्रह, अनुवाद और पुरानी रचनाओं की खोज कर और उन्हें प्रकाशित कराने तथा नई रचनाओं को प्रकाश में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया तो वहीं दूसरी तरफ नागरी लिपि के विकास के लिए विद्यालय भी खोले गए जिन्हें नागरी पाठशाला कहा गया और साथ ही इस लिपि के विकास के लिए लोगों को आर्थिक मदद देकर लिखने के लिए प्रोत्साहन भी दिया । हिंदी भाषा को अदालतों की भाषा और राजकीय कार्यालय की भाषा बनाने के लिए भी सभा ने गांव-गांव प्रचार प्रसार करने और इसके लिए आंदोलन करने के मुहिम में सदैव आगे रही। साथ ही पुरस्कारों और पदकों के माध्यम से भी हिंदी भाषा और साहित्य का प्रचार-प्रसार करती रही। आज इसकी अवस्था अत्यंत दयनीय हो गई है। ' नागरिक प्रचारिणी सभा' के दावेदारी को लेकर मुकदमेबाजी में संस्था अपनी गतिशीलता को खोता जा रहा है। इसे जल्द से जल्द आर्थिक मदद और मुकम्मल दावेदार की जरूरत है जो इसे सुचारु रूप से आगे ले जा सके।
संदर्भ ग्रंथ सूची -
1.हीरक जयंती ग्रंथ , पृष्ठ -३, प्रकाशक - नागरी प्रचारिणी सभा, काशी
2. हिंदी साहित्य ज्ञान कोश-4, पृष्ठ - 1885 , प्रकाशक - भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता
3. वहीं, पृष्ठ - 1885
4. वहीं, पृष्ठ - 1885
5. नागरी प्रचारिणी सभा काशी का हिंदी पुस्तकों की खोज एवं सयुक्त प्रदेश के न्यायालयों में हिंदी का प्रवेश कराने में योगदान - डॉ अनामिका सिंह (प्रकाशन - IJRSCT वॉल्यूम ३, 5जून 2023)
6.हिंदी साहित्य ज्ञान कोश - 4, संपादक - शंभूनाथ सिंह, प्रकाशन - भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता, पृष्ठ - 1886
7. नागरी प्रचारिणी सभा का योगदान : ऐतिहासिक संदर्भ में - गोपेश पांडेय(THE ETERNITY,वॉल्यूम 3 पृष्ठ 139)
8.हिंदी साहित्य ज्ञान कोश - 4, पृष्ठ-1886
9. श्री राधाकृष्णदास/भाग 1- रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ 2
10.हीरक जयंती ग्रंथ, पृष्ठ 41
11.नागरी प्रचारिणी सभा का योगदान : ऐतिहासिक संदर्भ में - गोपेश पांडेय(THE ETERNITY,वॉल्यूम 3 पृष्ठ 141)
12.हीरक जयंती ग्रंथ, पृष्ठ- 52
13.वहीं, पृष्ठ - 6